Sagar Watch News/ डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के अभिमंच सभागार में श्री धर्मपाल स्मृति पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है, जिसे धर्मपाल शोधपीठ, स्वराज संस्थान निदेशालय, संस्कृति विभाग, भोपाल द्वारा प्रायोजित किया गया है। इसके विभिन्न तकनीकी सत्रों में आमंत्रित विद्वानों ने विभिन्न विषयों पर अपने विचार रखे।
यह चर्चा महात्मा गांधी के विचारों और भारतीय संस्कृति की प्रासंगिकता पर केंद्रित रही।समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर ने कहा कि जब हम महात्मा गांधी को याद करते हैं, खासकर स्वराज पर बात करते हैं, तो उनकी किताब हिंद स्वराज ज़रूर याद आती है। ये एक छोटी लेकिन असरदार किताब है, जिसमें गांधीजी ने बताया कि असली स्वराज पाने के लिए सिर्फ अंग्रेज़ों को भगाना काफी नहीं है, बल्कि उनकी सोच और जीवनशैली को भी छोड़ना होगा। उन्होंने भारतीय संस्कृति को ही असली स्वराज का आधार बताया।
प्रो. विजय बहादुर सिंह ने कहा कि हमारे देश की खासियत इसकी विविधता है—हमारे खाने, पहनावे, देवी-देवताओं तक में भिन्नता है। फिर भी हम एक हैं, क्योंकि हम सत्य, अहिंसा और कर्म में विश्वास करते हैं। किसी व्यक्ति की पहचान उसके कपड़ों से नहीं, बल्कि उसके व्यवहार और मूल्यों से होती है।
प्रो. कुमार प्रशांत ने कहा कि तकनीक सिर्फ एक साधन है, न कि अंतिम सत्य। इसका सही या गलत इस्तेमाल समाज तय करता है। तकनीक का उद्देश्य लोगों को जोड़ना होना चाहिए, न कि उन्हें बाँटना। गलत हाथों में तकनीक का दुरुपयोग भी हो सकता है, जैसे भ्रूण लिंग परीक्षण और कन्या भ्रूण हत्या। आज तो हमारी निजी जिंदगी भी तकनीक के ज़रिए सार्वजनिक होती जा रही है।
डॉ. मिथिलेश ने कहा कि आज का ज़्यादातर ज्ञान पश्चिम से प्रभावित है। लेकिन असली ज्ञान सिर्फ जानकारी नहीं, बल्कि आत्मा, समाज और प्रकृति से जुड़ा हुआ विवेक होता है, जो बदलाव लाने की ताकत रखता है। भारतीय परंपरा में ज्ञान को शक्ति का स्रोत माना गया है।
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी ने बताया कि अगर हम सोच नहीं बदलते, तो हम आज भी उपनिवेशवाद की मानसिकता में जी रहे हैं। यह सिर्फ राजनैतिक नियंत्रण नहीं था, बल्कि हमारी सोच, संस्कृति और संस्थाओं को छोटा दिखाने की एक चाल थी। हमारी पारंपरिक शिक्षा प्रणाली जैसे गुरुकुल, जो नैतिक और समग्र विकास पर आधारित थी, उसे छोड़कर हम अब केवल नौकरी पाने वाली शिक्षा की ओर बढ़ रहे हैं।
प्रो. सत्यकेतु सांकृत ने कहा कि उपनिवेशवाद ने हमारी ज़मीन ही नहीं छीनी, बल्कि हमारी सोच, संस्कृति और पहचान पर भी असर डाला। आज हमें सबसे ज़्यादा ज़रूरत इस मानसिक गुलामी से आज़ादी पाने की है। डॉ. अंबेडकर ने हमेशा इस मानसिक आज़ादी की बात की थी। जब तक हम खुद सोचने की आज़ादी नहीं पा लेते, तब तक हम सच्चे नागरिक नहीं बन सकते।
सभी वक्ताओं ने आत्मनिर्भर और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध भारत के निर्माण पर बल दिया।
समापन सत्र की अध्यक्षता डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय के शैक्षणिक अध्ययन संकाय के डीन प्रो. अनिल कुमार जैन ने की। इस सत्र में मुख्य अतिथि प्रो. सुष्मिता लख्यानी, डीन, शिक्षा संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने चित्रों के माध्यम से सरस्वती वाणी दी। विशिष्ट अतिथि के रूप में डॉ. मनीष वर्मा, संयुक्त निदेशक, लोक शिक्षण प्रभाग, सागर और प्रो. सत्यकेतु सांकृत, डीन, साहित्य अध्ययन केंद्र, बी.आर. अंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली ने अपना वक्तव्य दिया। डॉ. अनिल कुमार तिवारी ने अतिथियों का औपचारिक स्वागत किया। डॉ. अर्चना वर्मा ने संगोष्ठी की रिपोर्ट प्रस्तुत की। शिक्षा विभाग के डॉ. योगेश कुमार पाल ने आभार व्यक्त किया। सत्र का संचालन संस्कृत विभाग की सहायक प्राध्यापक डॉ. किरण आर्य ने किया।